स्वतंत्रता दिवस’2021

भारत को आजाद हुए पूरे 75 साल हो चुके हैं। इस देश को आजाद कराने में कितने ही वीरों ने अपने खून बहाया है। ये दिन आजाद होकर खुशी मनाने का तो दिन है ही साथ ही उन वीर सपूतों के बलिदान को भी याद करने का दिन है। अंग्रेजों में बहुत लंबे समय तक हमारे देश पर राज किया था। 15 अगस्त सन् 1947 को हम उनकी गुलामी से आजाद हुए थे। 

स्वतंत्रता दिवस का इतिहास

15 अगस्त 1947 की रात भारत देश आजाद हुआ था। अंग्रेजों ने पूरे 200 सालों तक हम पर राज किया था। देश को आजाद कराने में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, बालगंगाधर तिलक, सुखदेव, सरदार वल्लभभाई पटेल, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी जैसे अनेक वीरों के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। जिन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने में जी जान लगा दिया। कई तरह के विद्रोह और आंदोलन किए गए जिसके बाद अंत में थककर अंग्रेजों ने भारत से जाना ही उचित समझा।

स्वतंत्रता दिवस का महत्व

आज हम आजाद होकर खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं तो इसका पूरा श्रेय स्वंतत्रता सेनानियों को ही जाता है। जिन्होंने दिन-रात एक कर इसके लिए लड़ाई लड़ी। कई तरह की यातनाएं सहीं। तो उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता के दृष्टि से ये दिन बहुत महत्व रखता है। इसके साथ ही देश के प्रति अपने कर्तव्यों और देशभक्ति का महत्व समझने के लिए भी स्वतंत्रता दिवस हम सबके लिए बहुत मायने रखता है।

स्वतंत्रता दिवस का महत्व

आज हम आजाद होकर खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं तो इसका पूरा श्रेय स्वंतत्रता सेनानियों को ही जाता है। जिन्होंने दिन-रात एक कर इसके लिए लड़ाई लड़ी। कई तरह की यातनाएं सहीं। तो उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता के दृष्टि से ये दिन बहुत महत्व रखता है। इसके साथ ही देश के प्रति अपने कर्तव्यों और देशभक्ति का महत्व समझने के लिए भी स्वतंत्रता दिवस हम सबके लिए बहुत मायने रखता है।

कैसे मनाया जाता है यह दिन

इस दिन स्कूल-कॉलेज और ऑफिसेज़ में झंडा फहराया जाता है, तरह-तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। लड्डू बांटे जाते हैं और कई जगहों पर तो इस दिन पतंग उड़ाने की भी परंपरा है। 15 अगस्त को दक्षिण कोरिया, बहरीन और कांगो भी स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। हांलाकि ये देश अलग-अलग सालों 1945, 1971 और 1960 में आजाद हुए थे।

स्वतंत्रता दिवस से सम्बंधित प्रश्नोत्तरी में भाग लेने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाएँ- 👇

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पेट्रोलियम संरक्षण

              पेट्रोलियम संरक्षण क्या है

सरल शब्दों में पेट्रोलियम संरक्षण को समझे तो इसका अर्थ यह है कि पेट्रोल डीजल गैस आदि की बचत करना या इसके उपयोग को सीमित करना. हम रिन्युब्ल एनर्जी जैसे सौर, जल, बायो ऊर्जा का उपयोग अधिक से अधिक करके परिवहन तथा घरेलू उपयोग में पेट्रोल को बचा सकते हैं. घर में केरोसिन की जगह एलपीजी का उपयोग करके पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं. हालांकि ये दोनों ही प्रदूषण फैलाते है और इनके सीमित भंडार हैं फिर भी केरोसीन एलपीजी के मुकाबले बड़ी मात्रा में विषैली गैसें छोड़ता हैं.

देश भर में एक समान कानून बनाकर भी पेट्रोलियम संरक्षण एवं इससे चलने वाले वाहनों में कटौती की जा सकती हैं. हमें पेट्रोल से चलने वाले वाहनों की संख्या कम से कम करनी होगी, ऐसा करके ही प्रदूषण में कमी की जा सकती हैं. देश के बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खाड़ी के तेल निर्यातक देशों को जाता हैं यदि हम इसकी खपत को कम देगे तो निश्चय ही यह धन अन्य क्षेत्रों में उपयोग किया जाने लगेगा.

आज प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पेट्रोल अभिन्न अंग व मूलभूत आवश्यकता बन गया हैं. सड़क पर हम जितने भी वाहन देखते है वे सब पेट्रोल और डीजल से ही चलते हैं. इससे प्रदूषण भी बढ़ रहा हैं तथा ईराक जैसे तेल निर्यातक देशों पर हमारी निर्भरता बढ़ रही हैं. पेट्रोलियम के कच्छे माल के लिए हमें बेशुमार धन एवं शक्तिशाली राष्ट्रों की शर्तों का पालन भी करना पड़ रहा हैं सरकार एवं जनभागीदारी के प्रयासों से हमारे देश में पेट्रोलियम संरक्षण की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य किये जा सकते हैं.

पेट्रोल तथा डीजल से चलने वाली इन मशीनों का सबसे बड़ा दुष्परिणाम हम प्रदूषण के रूप में भुगत रहे हैं. सर्दियों के मौसम में दिल्ली जैसे शहर की वायु में इस विषैले धुएँ के जहर को महसूस किया जा सकता हैं. ग्रीन एनर्जी की ओर आज समूचा संसार चल पड़ा हैं भारत समेत सभी पर्यावरण हितैषी राष्ट्र पेट्रोलियम संरक्षण की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. कई देशों में अधिक धुआं देने वाले पुराने वाहनों पर प्रतिबन्ध भी लगाया गया हैं. अब विश्व तेजी से पेट्रोल डीजल से चलने वाले वाहनों के विकल्प की तलाश में जुटे हैं. अब सीएनजी से चलने वाली गाड़ियों की संख्या निरंतर बढ़ रही हैं. ऐसा करके हम मानव व प्रकृति हित में अपना योगदान भी कर सकते हैं.

इस तरह पेट्रोल का संरक्षण हमारे देश की विकास में अहम योगदान दे सकता हैं. सभी नागरिकों का यह दायित्व हैं कि हम भारत की इकोनोमिक स्थिति में सुधार के लिए पेट्रोलियम का कम से कम उपयोग करे. कच्चे तेल के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए हम अपने दैनिक कार्यों में वाहनों की भूमिका को कम करे , इस तरह थोड़ी थोड़ी बचत के जरिये हम राष्ट्र निर्माण में बड़ा योगदान कर सकते हैं| पेट्रोलियम संरक्षण से सम्बंधित प्रश्नोत्तरी में भाग लेने के लिए नीचे दिये गए लिंक को दबाएँ-:👇

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स्वामी विवेकानंद (YOUTH DAY)

स्वामी विवेकानंद का जीवनवृत्त
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन्‌ 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवीजी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान् शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद का बचपन बचपन से ही नरेन्द्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के और नटखट थे। अपने साथी बच्चों के साथ तो वे शरारत करते ही थे, मौका मिलने पर वे अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। नरेन्द्र के घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुक्ता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पंडितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।

गुरु के प्रति निष्ठाएक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर स्वामी विवेकानन्द को क्रोध आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!

विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:

1. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।

2. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।
3. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
4. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
5. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
6. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
7. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
8. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।
9. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
10. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।

मृत्यु उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्चभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा “एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।” प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने ‘ध्यान’ करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रक्खा था। उन्होंने कहा भी था, ‘यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।’ 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।

स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित प्रश्नोत्तरी में भाग लेने के लिए निचे दिये गए लिंक को दबाएँ:-

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Fit India Movement

Fit India Movement is a nation-wide movement in India to encourage people to remain healthy and fit by including physical activities and sports in their daily lives. It was launched by Prime Minister of India Narendra Modi at Indira Gandhi Stadium in New Delhi on 29 August 2019 (National Sports Day).

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‘राष्ट्रपिता’ महात्मा गांधी (2 अक्टूबर)

अहिंसा के पुजारी ‘राष्ट्रपिता’ महात्मा गांधी
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। इनके पिता का नाम करमचंद गांधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अंतिम संतान थे। महात्मा गांधी को ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और ‘राष्ट्रपिता’ माना जाता है।

गांधी जी का परिवार- गांधी की मां पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं। उनकी दिनचर्या घर और मंदिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।

विद्यार्थी के रूप में गांधी जी – मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालांकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियां भी जीतीं। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही तेज नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में मां का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में – ‘बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’ उनकी किशोरावस्था उनकी आयु-वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते ‘फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में अपनाया। गांधी जी जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे उसी वक्त पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबा से उनका विवाह कर दिया गया।

युवा गांधी जी – 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे ‘मुंबई यूनिवर्सिटी’ की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित ‘सामलदास कॉलेज’ में दाखिल लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेजी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीर-फाड़ की इजाजत नहीं थी। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परंपरा निभानी है तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा और ऐसे में गांधीजी को इंग्लैंड जाना पड़ा।
यूं भी गांधी जी का मन उनके ‘सामलदास कॉलेज’ में कुछ खास नहीं लग रहा था, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को सहज ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, संपूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह लंदन पहुंच गए। वहां पहुंचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार कानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाखिल हो गए।
1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुंचाने के बजाए उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा किए उससे लड़ने की नई तकनीक थी।
इसके बाद दक्षिण अफीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाले इस कानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज्यादा पसंद किया।
गांधी जब भारत लौट आए- सन् 1914 में गांधी जी भारत लौट आए। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा उन लोगों को तैयार करने में बिताए जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका साथ दे सकें।

फरवरी 1919 में अंग्रेजों के बनाए रॉलेट एक्ट कानून पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया। फिर गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन की घोषणा कर दी। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया।

इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्‍मा गांधी ने भारतीय स्‍वतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्‍य अभियानों में सत्‍याग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। गांधी जी के इन सारे प्रयासों से भारत को 15 अगस्‍त 1947 को स्‍वतंत्रता मिल गई।
उपसंहार – मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

महात्मा गांधी के पूर्व भी शांति और अहिंसा की के बारे में लोग जानते थे, परंतु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह, शांति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गांधी जयंती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है।
गांधी जी के बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि- ‘हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इंसान भी धरती पर कभी आया था।

विश्व पटल पर महात्मा गांधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शांति और अहिंसा का प्रतीक हैं। ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी महात्मा गांधी की 30 जनवरी, 1948 को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई।

गांधीजी के जीवन परिचय से सम्बंधित प्रश्नोत्तरी खेलने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :-

https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLScLCfCyR8Ex38CMD8Oi6PTmwg8QHVjoOIEoxu3BTMraFeCcQg/viewform?usp=sf_link

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन

शिक्षक समाज के ऐसे शिल्पकार होते हैं जो बिना किसी मोह के इस समाज को तराशते हैं। शिक्षक का काम सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही नहीं बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से छात्रों को परिचित कराना भी होता है। शिक्षकों की इसी महत्ता को सही स्थान दिलाने के लिए ही हमारे देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पुरजोर कोशिशें की, जो खुद एक बेहतरीन शिक्षक थे।

अपने इस महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य में शिक्षक दिवस मनाकर डॉ.राधाकृष्णन के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। 

 जीवन परिचय –  5 सितंबर 1888 को चेन्नई से लगभग 200 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित एक छोटे से कस्बे तिरुताणी में डॉक्टर राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम सर्वपल्ली वी. रामास्वामी और माता का नाम श्रीमती सीता झा था। रामास्वामी एक गरीब ब्राह्मण थे और तिरुताणी कस्बे के जमींदार के यहां एक साधारण कर्मचारी के समान कार्य करते थे।  डॉक्टर राधाकृष्णन अपने पिता की दूसरी संतान थे। उनके चार भाई और एक छोटी बहन थी छः बहन-भाईयों और दो माता-पिता को मिलाकर आठ सदस्यों के इस परिवार की आय अत्यंत सीमित थी। इस सीमित आय में भी डॉक्टर राधाकृष्णन ने सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती। उन्होंने न केवल महान शिक्षाविद के रूप में ख्याति प्राप्त की,बल्कि देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद को भी सुशोभित किया। स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को बचपन में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सर्वपल्ली राधाकृष्णन का शुरुआती जीवन तिरुतनी और तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही बीता।  यद्यपि इनके पिता धार्मिक विचारों वाले इंसान थे लेकिन फिर भी उन्होंने राधाकृष्णन को पढ़ने के लिए क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल,तिरुपति में दाखिल कराया। इसके बाद उन्होंने वेल्लूर और मद्रास कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त की। वह शुरू से ही एक मेधावी छात्र थे।  अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाइबल के महत्वपूर्ण अंश याद कर लिए थे,जिसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान भी प्रदान किया गया था। उन्होंने वीर सावरकर और विवेकानंद के आदर्शों का भी गहन अध्ययन कर लिया था। सन 1902 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की जिसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की गई।  कला संकाय में स्नातक की परीक्षा में वह प्रथम आए। इसके बाद उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर किया और जल्द ही मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। डॉ.राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। 

डॉ राधाकृष्णन की जीवन परिचय से सम्बंधित प्रश्नोत्तरी खेलने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर click करें-https://docs.google.com/forms/d/1YwYBfmY6xmJzeESQUUmXvrM-xBH-D5tuBkANNCbjDj0/edit

मेजर ध्यान चंद

DHYAN

प्रस्तावना:-  ध्यानचंद भारत के महान हॉकी प्लेयर थे, उन्हें दुनिया के महान हॉकी प्लेयर में से एक माना जाता है. ध्यान चन्द्र को अपने अलग तरीके से गोल करने के लिए याद किया जाता है, उन्होंने भारत देश को लगातार तीन बार ओलिंपिक में स्वर्ण पदक दिलवाया था. अंतराष्ट्रीय ओलंपिक दिवस का इतिहास जानने के लिए पढ़े. यह वह समय था, जब  भारत की हॉकी टीम में सबसे प्रमुख टीम हुआ करती थी. ध्यानचंद का बॉल में पकड़ बहुत अच्छी थी, इसलिए उन्हें ‘दी विज़ार्ड’ कहा जाता था. ध्यानचंद ने अपने अन्तराष्ट्रीय खेल के सफर में 400 से अधिक गोल किये थे. उन्होंने अपना आखिरी अन्तराष्ट्रीय मैच 1948 में खेला था. ध्यानचंद को अनेको अवार्ड से सम्मानित किया गया है|

हॉकी खिलाड़ी ध्यानचन्द्र जीवन परिचय :-

क्रमांक जीवन परिचय बिंदु ध्यानचंद जीवन परिचय
1. पूरा नाम ध्यानचंद
2. जन्म 29 अगस्त 1905
3. जन्म स्थान इलाहबाद, उत्तरप्रदेश
4. पिता समेश्वर दत्त सिंह
5. हाइट 5 फीट 7 इंच
6. प्लेयिंग पोजीशन फॉरवर्ड
7. भारत के लिए खेले 1926 से 1948 तक
8. मृत्यु 3 दिसम्बर 1979

                                            ध्यानचंद का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहबाद में 29 अगस्त 1905 को हुआ था. वे कुशवाहा, मौर्य परिवार के थे. उनके पिता का नाम समेश्वर सिंह था, जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक सूबेदार के रूप कार्यरत थे, साथ ही हॉकी गेम खेला करते थे. ध्यानचंद के दो भाई थे, मूल सिंह एवं रूप सिंह. रूप सिंह भी ध्यानचंद की तरह होकी खेला करते थे, जो अच्छे खिलाड़ी थे. ध्यानचंद के पिता समेश्वर आर्मी में थे, जिस वजह से उनका तबादला आये दिन कही न कही होता रहता था. इस वजह से ध्यानचंद ने कक्षा छठवीं के बाद अपनी पढाई छोड़ दी. बाद में ध्यानचंद के पिता उत्तरप्रदेश के झाँसी में जा बसे थे.

हॉकी की शुरुवात: युवास्था में ध्यानचंद को होकी से बिलकुल लगाव नहीं था, उन्हें रेसलिंग बहुत पसंद थी. उन्होंने होकी खेलना अपने आस पास के दोस्तों के साथ खेलना शुरू किया था, जो पेड़ की डाली से होकी स्टिक बनाते थे, और पुराने कपड़ों से बॉल बनाया करते थे. 14 साल की उम्र में वे एक होकी मैच देखने अपने पिता के साथ गए, वहां एक टीम 2 गोल से हार रही थी. ध्यानचंद ने अपने पिता को कहाँ कि वो इस हारने वाली टीम के लिए खेलना चाहते थे. वो आर्मी वालों का मैच था, तो उनके पिता ने ध्यानचंद को खेलने की इजाज़त दे दी. ध्यानचंद ने उस मैच में 4 गोल किये. उनके इस रवैये और आत्मविश्वास को देख आर्मी ऑफिसर बहुत खुश हुए, और उन्हें आर्मी ज्वाइन करने को कहा.

       1922 में 16 साल की उम्र में ध्यानचंद पंजाब रेजिमेंट से एक सिपाही बन गए. आर्मी में आने के बाद ध्यानचंद ने होकी खेलना अच्छे से शुरू किया, और उन्हें ये पसंद आने लगा. सूबेदार मेजर भोले तिवार जो ब्राह्मण रेजिमेंट से थे, वे आर्मी में ध्यानचंद के मेंटर बने, और उन्हें खेल के बारे में बेसिक ज्ञान दिया. पंकज गुप्ता ध्यानचंद के पहले कोच कहे जाते थे, उन्होंने ध्यानचंद के खेल को देखकर कह दिया था कि ये एक दिन पूरी दुनिया में चाँद की तरह चमकेगा. उन्ही ने ध्यानचंद को चन्द नाम दिया, जिसके बाद उनके करीबी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे. इसके बाद ध्यान सिंह, ध्यान चन्द बन गया.

ध्यानचंद मृत्यु  –

ध्यानचंद के आखिरी दिन अच्छे नहीं रहे. ओलिंपिक मैच में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने के बावजूद भारत देश उन्हें भूल गया. उनके आखिरी दिनों में उन्हें पैसों की भी कमी थी. उन्हें लीवर में कैंसर हो गया था, उन्हें दिल्ली के AIIMS हॉस्पिटल के जनरल वार्ड में भर्ती कराया गया था. उनका देहांत 3 दिसम्बर 1979 को हुआ था.

ध्यानचंद अवार्ड्स व अचीवमेंट  –

  • 1956 में भारत के दुसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म भूषण से ध्यानचंद को सम्मानित किया गया था.
  • उनके जन्मदिवस को नेशनल स्पोर्ट्स डे की तरह मनाया जाता है.
  • ध्यानचंद की याद में डाक टिकट शुरू की गई थी.
  • दिल्ली में ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम का निर्माण कराया गया था|

ध्यानचंद की प्रस्नोत्तरी खेलने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें|images

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सफलता के मूल-मंत्र

प्रस्तावना

बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो अथक प्रयासों के बावजूद भी जीवन में असफलता और हार का मुंह देखते हैं। ऐसे लोग यही सोचते हैं कि सफलता उनके भाग्य में ही नहीं है। लेकिन व्यक्ति को कभी भी हार से घबराना नहीं चाहिए। डेल कार्नेगी ने भी कहा था कि असफलता से सफलता का सृजन कीजिए। निराशा और असफलता, सफलता के दो निश्चित आधार स्तंभ हैं। बस जरूरत है तो खुद में कुछ बदलाव करने की। तो चलिए आज हम आपको ऐसी कुछ बातों के बारे में बता रहे हैं, जिन्हें छोड़ने के बाद जीवन में सफलता बेहद आसानी से पाई जा सकती हैं−

 लक्ष्य निर्धारण

हर व्यक्ति के जीवन का फलसफा अलग होता है। किसी के लिए सफलता का मतलब बहुत नाम व पैसा कमाना होता है तो कोई अपने काम में खुशी ढूंढकर सफलता का अहसास करता है। इसलिए सफलता हासिल करने के लिए आप सबसे पहले दूसरों की बातों को सुनना बंद करें और खुद से यह सवाल करें कि आप अपने जीवन से क्या चाहते हैं। जब आपको जवाब मिल जाए तो उसे पूरा करने में जुट जाएं। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करो और सभी दूसरे विचार को अपने दिमाग से निकाल दो। यही सफलता की पूंजी है।

 निर्णय क्षमता

जीवन में वही व्यक्ति आगे बढ़ता है, जो अपने जीवन में कुछ कठोर निर्णय लेता है। कुछ लोगों के निर्णय उन्हें नई ऊंचाइयों तक ले जाते हैं तो कभी−कभी गलत निर्णय के कारण आपको सबकुछ शुरू से शुरू करना पड़ता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हार के डर से व्यक्ति निर्णय लेना ही छोड़ दें। असमंजस की स्थिति में व्यक्ति किसी निर्णय पर नहीं पहुंचता और कुछ अच्छे अवसर उसके हाथ से छूट जाते हैं। इसलिए बाद में पछताने से अच्छा है कि आप खुद पर भरोसा करें और हिम्मत करके कुछ जटिल निर्णय लेना भी सीखें।

 कमियों को स्वीकारना

यह एक विश्वव्यापी सत्य है कि जीवन में कोई भी व्यक्ति परफेक्ट नहीं होता। हर किसी में कुछ न कुछ कमियां अवश्य होती हैं। लेकिन अगर व्यक्ति न सिर्फ उन कमियों को पहचानें, बल्कि उन्हें स्वीकार करके अपनी कमियों को ही अपनी खूबी बना लेता है तो कोई भी उन्हें सफल होने से नहीं रोक सकता। वहीं कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो भूतकाल में हुई अपनी गलतियों का रोना रोते रहते हैं और खुद पर विश्वास करना ही छोड़ देते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन में कभी भी सफलता का स्वाद नहीं चख पाते। मेल्कम फोर्ब्स के शब्दों में, असफलता सफलता है, यदि हम उससे सीख लें तो।

 जैसा कि आप सभी जानते हैं हर असफलता के पीछे सफलता छुपी होती है उसी प्रकार हम सभी को अपने जीवन में निरंतर सफल होने के प्रयास करते रहना चाहिए। इसी परिपेक्ष्य से संबंधित में आप सबके सामने सफलता से प्रेरित कहानी लेकर उपस्थित हुआ हुँ। जिसका शीर्षक है,

सफलता की कहानी  इस कहानी का वीडियो देखने के लिये नीचे  क्लिक करें।👇

Safalta Ki Kahani

मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद अपने आधुनिक हिंदुस्तानी साहित्य के लिए एक प्रसिद्ध भारतीय लेखक थे। प्रेमचंद एक ऐसे प्रगतिशील लेखक थे, जिनके हाथों में हिंदी साहित्य ने नई ऊंचाइयां हासिल कीं। उन्होंने आम आदमी की समस्याओं को उजागर किया और अपने समय के समाज के लिए एक दर्पण का आयोजन किया। उनके लेखन पर स्थायी प्रभाव पड़ा; उन्होंने उस समय के यथार्थवादी मुद्दों को उठाया- सांप्रदायिकता, गरीबी, उपनिवेशवाद, भ्रष्टाचार आदि। उन्होंने लघु कथाएँ, उपन्यास और कई निबंध लिखे। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ पंच परमेस्वर, गोदान, गबन, करमभूमि, और मनोरमा आदि हैं।

मुंशी प्रेमचंद का प्रारंभिक जीवन
उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास स्थित गाँव लमही में हुआ था। उनका जन्म धनपतराय के रूप में हुआ था और प्रेमचंद उनका छद्म नाम था। उनके माता-पिता अजायब लाल और आनंदी थे। उनके माता-पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा, जबकि उनके चाचा, महाबीर, एक अमीर ज़मींदार, ने उन्हें “नवाब” नाम दिया। प्रेमचंद ने “नवाब राय” को अपना पहला कलम नाम चुना।

मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा
उनकी प्रारंभिक शिक्षा एक मौलवी के अधीन एक मदरसे में हुई, जहाँ उन्होंने उर्दू और फ़ारसी सीखी। अपनी माँ के निधन के बाद, उन्होंने कल्पना में एकांत पाया जो बाद में आकर्षण में बदल गया। उन्होंने एक पुस्तक थोक व्यापारी के लिए किताबें बेचने का काम लिया, जिससे उन्हें बहुत सारी किताबें पढ़ने की संभावना मिली। उन्होंने एक मिशनरी स्कूल में अंग्रेजी सीखी। बाद में 1890 के दशक के मध्य में, उन्होंने बनारस के क्वीन्स कॉलेज में एक दिन के विद्वान के रूप में दाखिला लिया।

मुंशी प्रेमचंद की कृतियाँ
प्रेमचंद ने बहुत ही सीधे और सरल अंदाज में लिखा और उनके शब्दों ने अपना जादू चलाया। उनके नायक हमेशा उनके आस-पास के लोगों को देखते थे। मानव मनोविज्ञान के बारे में उनके ज्ञान और जीवन की विडंबनाओं की उनकी प्रशंसा ने उन्हें एक शानदार लेखक बना दिया। अपनी साफ-सुथरी शैली और आकर्षक ढंग के साथ, प्रेमचंद को पढ़ना एक बहुत खुशी की बात है। उनका गद्य सटीक है और उनके वर्णन संक्षिप्त हैं।

प्रेमचंद ने पहली बार उर्दू उपन्यासों का चयन किया, जो हिंदी में विशेष रूप से लघु कथाओं में उनके बाद के कैरियर पर फारसी साहित्य के मजबूत प्रभाव को प्रकट करता है। प्रेमचंद की लघु कथाओं का पहला संग्रह सोज़-ए-वतन ने उन्हें सरकार के ध्यान में लाया। हमीरपुर जिले के ब्रिटिश कलेक्टर ने उन्हें देशद्रोही कहा और आदेश दिया कि सभी प्रतियों को जला दिया जाए और लेखक भविष्य के लेखन को निरीक्षण के लिए प्रस्तुत करें। सौभाग्य से, कुछ प्रतियां बच गईं, और प्रेमचंद ने सेंसरशिप से बचने के लिए अपना नाम धनपतराय से बदलकर प्रेमचंद रख लिया।

1920 में, प्रेमचंद ने एक सरकारी हाई स्कूल से इस्तीफा दे दिया और मोहनदास गांधी के कट्टर समर्थक बन गए और बापूजी के साथ उनके असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए, जिनके प्रभाव ने 1920 से 1932 तक प्रेमचंद के काम को दृढ़ता से चिह्नित किया। यथार्थवादी सेटिंग्स और घटनाओं के साथ, प्रेमचंद ने आदर्शवादी अंत तक संघर्ष किया। उनकी कहानियों के लिए। उनके चरित्र अंग्रेज समर्थक से भारतीय समर्थक में या खलनायक जमींदार से गांधी-जैसे सामाजिक सेवक तक में बदलते हैं; बार-बार होने वाले रूपांतरण कहानियों को दोहराव और पात्रों को केवल रूपांतरण के बिंदु तक रोचक बनाते हैं।

प्रेमचंद भारत के लिए महान सामाजिक उथल-पुथल के युग में रहे थे। उन्होंने पारंपरिक गाँवों की स्वतंत्रता को उपनिवेशवादियों द्वारा नष्ट होते देखा। उन्होंने देखा कि शहरी केंद्रों में नौकरियों के बढ़ते केंद्रीकरण के दबाव के साथ भारतीय अविभाजित परिवार की पारंपरिक व्यवस्था कैसे गिर रही है। उन्होंने बड़े पैमाने पर शहरीकरण के परिणामस्वरूप और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न भौतिकवादी और अधिग्रहण की प्रवृत्ति का उल्लेख किया। उनकी कहानियाँ और उपन्यास ईमानदारी से अपने नायक के परीक्षणों और क्लेशों के माध्यम से इन प्रवृत्तियों को रिकॉर्ड करते हैं और उनका विश्लेषण करते हैं। पाठक प्रेमचंद की कहानियों का एक हिस्सा महसूस करते हैं। उनके सभी काल्पनिक पात्र वास्तविक हैं और वे जीवित हैं और सांस ले रहे हैं।

सभी विद्यार्थियों / शिक्षकों/अभिभावकों से अनुरोध है कि भारत के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की जन्मतिथि के अवसर पर आयोजित हिंदी प्रश्नोत्तरी मे भाग ले एवं अपनी सामान्य जानकारी को परखे। भाग लेने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाएँ-

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